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Yoga ,योग क्या है ?

योग,Yoga

योग भारतीय दर्शनशास्त्र की एक अत्यंत प्राचीन विद्या है।  भारतीय प्राचीन ग्रंथ वेद शास्त्रों में भी  योग का व्यापक रूप से वर्णन मिलता है। षट्दर्शन  में योग दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो मानव जीवन में अध्यात्म वाद-विवाद या तर्कशास्त्र को महत्व न देते हुए जीवन के उत्थान के लिए  मानव स्वास्थ्य एवं उसके शरीर के व्यवहारिक प्रयोगात्मक पक्ष पर विशेष बल देता है। यही कारण है कि इस दर्शन में आसन, योग प्रक्रिया, प्राणायाम, व्यायाम आदि के माध्यम से शारीरिक स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक उपलब्धि पाने की बात दर्शाई गई है। इसी विशेषता के कारण प्राचीन काल से लेकर आज तक योग अपनी उपयोगिता बनाए हुए हैं। आज आधुनिक युग में देश काल की सीमाओं को लांघकर योग अब योगा बनकर विदेशों में भी खूब प्रचलित हुआ है।
                       योग जीवन को संपूर्ण रूप से देखने की दृष्टि देता है। इसमें शरीर को साधन मानकर  उसे सशक्त बनाने पर जोर दिया गया है। स्वस्थ शरीर के बिना साधना नहीं होती इसलिए शास्त्रों में कहा जाता है "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" शरीर निश्चय ही सबसे पहला धर्म का साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना मनुष्य के  लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। भारत ऋषि मुनियों की भूमि है। प्राचीन काल मेंं संंत महात्मा ऋषि मुनि योग साधना से ही हजारों वर्षों तक लंबा जीवन व्यतीत  करते थे। उनके स्वस्थ और श्रेष्ठ जीवन का रहस्य था योग। शारीरिक, मानसिक तथा  आत्मिक शक्तिप्राप्त करने के लिए तथा जीवन में सुख, संतोष तथा आनंद प्राप्त करने के लिए योग श्रेष्ठ साधन माना जाता है। योग सेेे मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य अर्थात मोक्ष को प्राप्त करने में सफल होकर इस आवागमन के चक्र से सदैव के लिए छुटकारा पाकर ईश्वर के चरणों में स्थान प्राप्त करनेे में सफल हो सकता है। योग सेेेे आत्मा तथा परमात्मा का मिलन संभव हो सकता है।
                 आज वर्तमान भौतिक युग में भी योग एक ऐसा सरल साधन है जो व्यक्ति को शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रखने में सहायक हो सकता ह। योग के माध्यम से शरीर तथा मन दोनों सबल बनते हैं।  योग के वास्तविक नियमों तथा सिद्धांतों का पालन करें तो शरीर को अधिक स्वस्थ बनाए रखने में सफलता प्राप्त हो सकती है। योग सही अर्थों में स्वास्थ की परिभाषा देता है। स्वस्थ, लंबा तथा श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए सबसे सरल उपाय योग ही है।

योग की परिभाषा :-- योग शब्द का वर्णन वेदों उपनिषदों गीता तथा पुराणों में अति प्राचीन काल से होता आया है। भारतीय दर्शन में योग अति महत्वपूर्ण शब्द है। आत्मदर्शन समाधि से लेकर कर्म क्षेत्र तक योग का व्यापक व्यवहार हमारे शास्त्रों में हुआ है। योग के संबंध में विभिन्न ऋषि, मुनियों और विद्वानों ने समय-समय पर अपने दृष्टिकोण के अनुसार परिभाषाएं दी है।
               
                •   योग शब्द की निष्पत्ति 'युज्' धातु से हुई है जिसका अर्थ है युक्त करना, जोड़ना अथवा मिलाना अर्थात संयम पूर्वक साधना करते हुए आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़कर समाधि का आनंद लेना योग है।

योग की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने अपने मतानुसार इस प्रकार से की है। जिनसे योग के संबंध में धारणा और भी स्पष्ट हो जाती है ------
(1) महर्षि व्यास के अनुसार योग का अर्थ समाधि है।
(2) योग दर्शन के उपदेष्टा महर्षि पतंजलि के अनुसार- 
"  'योगश्चित्त वृत्तिनिरोध:' है मन की वृत्तियों (रूप, रस, गंध, स्पर्श, तथा शब्द के लोभ को रोकना योग है। अर्थात चित्त की चंचलता का दमन ही योग है "
(3) महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार- संयोगः 'योग इत्युक्तः जीवात्मनः परमात्सनः'  अर्थात जीवात्मा तथा परमात्मा के मिलन का नाम योग है।
(4) भगवान श्री कृष्ण को योगेश्वर कहा गया है। भगवद् गीता   में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा योग का अर्थ समझाते हुए कहा गया है 'समत्वं योग उच्यते'  'समत्व योग कहलाता है'। अर्थात जीवात्मा तथा परमात्मा का एकाकार होना ही योग है। छठे अध्याय में कहा गया है कि जो  'योगः कर्मसु कौशलम्'  'कर्मों में कुशलता योग है' अर्थात प्रत्येक कार्य को कुशलता पूर्वक संपन्न करना ही योग है।
(5) जैन आचार्यों के अनुसार जिन साधनों से 'आत्मा की शुद्धि तथा मोक्ष' की प्राप्ति होती है वह योग है।
(6) वेदांत के अनुसार, 'जीव तथा आत्मा के मिलन की संज्ञा ही योग है'।
(7) योग वशिष्ठ के अनुसार, "संसार सागर से पार होने की युक्ति को ही योग  है"।
(8) स्वामी शिवानंद सरस्वती के शब्दों में, "योग उस साधना की प्रणाली का नाम है जिसके अंतर्गत जीवात्मा तथा परमात्मा के एकत्व का अनुभव होता है एवं जीवात्मा का परमात्मा के साथ ज्ञानपूर्वक सयोंग होता है"।
(9) आधुनिक युग के योगी श्री अरविंद के अनुसार "परमदेव के साथ एकत्व की प्राप्ति के लिए प्रयास करना तथा इसे प्राप्त करना ही सब योगों का स्वरूप है" ।

योग के विभिन्न प्रकार :---
(1) "दत्तात्रेय योग' शास्त्र तथा "योगराज उपनिषद' में योग के चार महत्वपूर्ण प्रकार माने गए हैं। योगत्त्वोपउपनिषद् में इन चार योगों का लक्षण इस प्रकार किया गया है। यहां हम सरल भाषा में संक्षिप्त में इनका वर्णन इस प्रकार करते हैं ------
(i)  मंत्र योग --- योग में सबसे महत्वपूर्ण मंत्र योग है। इस योग में मंत्रों के बारे में बताया गया है। किस मंत्र को किस ध्वनि  में कितने बार जपना है ऐसी विद्यिया इस योग में बताई गई है। विधि पूर्वक जब करके हम अपने जीवन में किस प्रकार शक्तियां प्राप्त कर सकते हैं ऐसा वर्णन मंत्र योग में मिलता है। 12 वर्षों तक विधिपूर्वक मंत्र जपने से अणिमा आदि सिद्धियां साधक को प्राप्त हो जाती हैं।
(ii) लय योग ---- अपने जीवन में ईश्वर का ध्यान करते हुए लयबध तरीके से होश पूर्ण रहते हुए अपने सभी कार्य करते हुए जीवन जीने की कला को लययोग कहते हैं।
(iii)  हठ योग --‐--- विभिन्न मुद्राओं, आसनों, प्राणायाम, तथा बंधो के अभ्यास से शरीर को निर्मल तथा मन को एकाग्र करना हठ  योग  कहलाता है।
(iv)  राजयोग ----  राज का अर्थ हे दीप्तिमान ,ज्योतिर्मय तथा योग का अर्थ समाधि तथा अनुभूति है। पतंजलि योग दर्शन को ही  राज योग की संज्ञा दी गई है। महर्षि पतंजलि ने सभी सामग्री  को एकत्रित करके उसे अपने मौलिक विचारों से सजाकर एक व्यवस्थित रूप देकर योगसूत्र के रूप में प्रतिपादित किया है। दिया है। योग सूत्र में कुल 4 पाद समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद, और कैवल्यपाद हैं ।जिनकी सूत्र संख्या 195 है। इन चार पादो में अष्टांग योग का वर्णन किया गया है।
पतंजलि के योग सूत्र में अष्टांग योग के आठ अंगों का वर्णन किया गया है। ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के नाम से जाने जाते हैं ।

(2) शास्त्रों में भगवान कृष्ण को योगेश्वर की संज्ञा दी गई है। श्री कृष्ण तो स्वयं भगवान है। गीता में प्रभु ने तीन तरह के योगों का वर्णन किया है।
(i)  ध्यान योग
(ii)  सांख्य योग
(iii)  कर्म योग

आधुनिक युग में योग का स्वरूप ---- आज आधुनिक युग में पतंजलि योग सूत्र के अष्टांग योग का अधिक प्रचलन है। और हो भी क्यों न क्योंकि महर्षि पतंजलि ने  योग का एक ऐसा पथ प्रशस्त किया है जिस पर निर्भय होकर पूर्ण स्वतंत्रता के साथ दुनिया का प्रत्येक इंसान चल सकता है। तथा जीवन में शरीरिक स्वाथ्य के साथ पूर्ण सुख शांति व आनंद को प्राप्त कर सकता है।
                    महर्षि पतंजलि प्रतिपादित अष्टांग योग सूत्र  कोई मत, पंथ अथवा संप्रदाय नहीं अपितु जीवन जीने की संपूर्ण पद्धति है। इसका अनुसरण करके संसार का कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को स्वस्थ और समृद्ध बना सकता है ।यदि संसार के लोग वास्तव में इस बात को लेकर गंभीर हैं कि विश्व में शांति स्थापित होनी ही चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ हो तो इसका एकमात्र समाधान है अष्टांग योग का पालन ।अष्टांग योग के द्वारा ही व्यक्तिगत व सामाजिक समरसता शारीरिक स्वास्थ्य बौद्धिक जागरण मानसिक शांति तथा आत्मिक आनंद की अनुभूति हो सकती है।

महर्षि पतंजलि योग सूत्र में लिखते हैं ----
                     यम - नियम -आसन - प्राणायाम - प्रत्याहार - धारणा - ध्यान -समाधयोःडष्टांपङानि ।।
अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इन सब अंगों का पान किए बिना व्यक्ति योगी नहीं हो सकता।
                     इनमें पहले पांच साधन यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार मुख्य रूप से शरीर के स्वास्थ्य के लिए ज्यादा उपयोगी हैं। बाद के तीन साधन धारणा, ध्यान और समाधि सूक्ष्म तथा कारण शरीर का गहरे तक स्पष्ट करते हुए उसमें परिष्कार करते हैं। इसलिए पहले साधनों यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार  को बहिरंग साधन तथा धारणा, ध्यान, तथा समाधि को अंतरंग साधन कहा गया है। अष्टांग योग मे शरीर, मन तथा चेतना इन तीनों के विकास का साधन बताया गया है। इसका उद्देश्य है कि की मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हुए अपने जीवन से संबंधित क्षमताओं का  पूर्ण रूप से विकास कर सके।




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